'सीमाब' दिल हवादिस-ए-दुनिया से बुझ गया
अब आरज़ू भी तर्क-ए-तमन्ना से कम नहीं
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हुस्न के दिल में जगह पाते ही दीवाना बने
सुबू पर जाम पर शीशे पे पैमाने पे क्या गुज़री
हद हो कोई तो सब्र तिरे हिज्र पर करें
तेरे जल्वों ने मुझे घेर लिया है ऐ दोस्त
गुनाहों पर वही इंसान को मजबूर करती है
अंजाम हर इक शय का ब-जुज़ ख़ाक नहीं है
बुत करें आरज़ू ख़ुदाई की
चमक जुगनू की बर्क़-ए-बे-अमाँ मालूम होती है
हाए 'सीमाब' उस की मजबूरी
देखते रहते हैं छुप-छुप के मुरक़्क़ा तेरा
रोज़ कहता हूँ कि अब उन को न देखूँगा कभी
बदन से रूह रुख़्सत हो रही है