ये बज़्म-ए-मय है याँ कोताह-दस्ती में है महरूमी
जो बढ़ कर ख़ुद उठा ले हाथ में मीना उसी का है
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परवानों का तो हश्र जो होना था हो चुका
ग़म-ए-फ़िराक़ मय ओ जाम का ख़याल आया
तलब करें भी तो क्या शय तलब करें ऐ 'शाद'
हज़ार हैफ़ छुटा साथ हम-नशीनों का
चालाक हैं सब के सब बढ़ते जाते हैं
जैसे मिरी निगाह ने देखा न हो कभी
शहरों में फिरे न सू-ए-सहरा निकले
मैं हैरत ओ हसरत का मारा ख़ामोश खड़ा हूँ साहिल पर
साक़ी के करम से फ़ैज़ ये जारी है
हरगिज़ कभी किसी से न रखना दिला ग़रज़
ये वहम किसी तरह न माक़ूल हुआ
काबा ओ दैर में जल्वा नहीं यकसाँ उन का