जैसे मिरी निगाह ने देखा न हो कभी
महसूस ये हुआ तुझे हर बार देख कर
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ख़मोशी से मुसीबत और भी संगीन होती है
तमन्नाओं में उलझाया गया हूँ
ये वहम किसी तरह न माक़ूल हुआ
सौ तरह का मेरे लिए सामान क्या
अब भी इक उम्र पे जीने का न अंदाज़ आया
दिल-ए-मुज़्तर से पूछ ऐ रौनक़-ए-बज़्म
फ़क़त शोर-ए-दिल-ए-पुर-आरज़ू था
कहाँ से लाऊँ सब्र-ए-हज़रत-ए-अय्यूब ऐ साक़ी
जिए जाएँगे हम भी लब पे दम जब तक नहीं आता
हादी हूँ मैं काम है हिदायत मेरा
कुछ ऐसा कर कि ख़ुल्द आबाद तक ऐ 'शाद' जा पहुँचें