शहर में गलियों गलियों जिस का चर्चा है
वो अफ़्साना तेरा भी है मेरा भी
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ज़िंदगी इक आँसुओं का जाम था
पुकारती है जो तुझ को तिरी सदा ही न हो
रूह को क़ैद किए जिस्म के हालों में रहे
बे-सबब बात बढ़ाने की ज़रूरत क्या है
कुछ तो हो रात की सरहद में उतरने की सज़ा
पाया नहीं वो जो खो रहा हूँ
तबाह कर गई पक्के मकान की ख़्वाहिश
मय-ख़ाने की बात न कर वाइज़ मुझ से
अंदर का सुकूत कह रहा है
काँटों को पिला के ख़ून अपना
ग़म का ख़ज़ाना तेरा भी है मेरा भी
इस सोच में ज़िंदगी बिता दी