काँटों को पिला के ख़ून अपना
राहों में गुलाब बो रहा हूँ
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तबाह कर गई पक्के मकान की ख़्वाहिश
वो भी धरती पे उतारी हुई मख़्लूक़ ही है
ग़म का ख़ज़ाना तेरा भी है मेरा भी
रेत की लहरों से दरिया की रवानी माँगे
आप के दम से तो दुनिया का भरम है क़ाएम
क्या फ़र्ज़ है ये जिस्म के ज़िंदाँ में सज़ा दे
इतनी जल्दी तो बदलते नहीं होंगे चेहरे
मय-ख़ाने की बात न कर वाइज़ मुझ से
अंदर का सुकूत कह रहा है
तुम से मिलते ही बिछड़ने के वसीले हो गए
कौन है अपना कौन पराया क्या सोचें