कौन है अपना कौन पराया क्या सोचें
छोड़ ज़माना तेरा भी है मेरा भी
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रूह को क़ैद किए जिस्म के हालों में रहे
इस सोच में ज़िंदगी बिता दी
गिरने दो तुम मुझे मिरा साग़र संभाल लो
वो भी धरती पे उतारी हुई मख़्लूक़ ही है
तेरा कूचा तिरा दर तेरी गली काफ़ी है
अंदर का सुकूत कह रहा है
बे-सबब बात बढ़ाने की ज़रूरत क्या है
कर्ब चेहरे से मह-ओ-साल का धोया जाए
ग़म का ख़ज़ाना तेरा भी है मेरा भी
क्या फ़र्ज़ है ये जिस्म के ज़िंदाँ में सज़ा दे
पाया नहीं वो जो खो रहा हूँ