वो भी धरती पे उतारी हुई मख़्लूक़ ही है
जिस का काटा हुआ इंसान न पानी माँगे
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Mir Taqi Mir
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अंदर का सुकूत कह रहा है
इतनी जल्दी तो बदलते नहीं होंगे चेहरे
इस सोच में ज़िंदगी बिता दी
बे-सबब बात बढ़ाने की ज़रूरत क्या है
पुकारती है जो तुझ को तिरी सदा ही न हो
आप के दम से तो दुनिया का भरम है क़ाएम
हर आइने में बदन अपना बे-लिबास हुआ
कौन है अपना कौन पराया क्या सोचें
ज़िंदगी इक आँसुओं का जाम था
क्या फ़र्ज़ है ये जिस्म के ज़िंदाँ में सज़ा दे
कुछ तो हो रात की सरहद में उतरने की सज़ा
कर्ब चेहरे से मह-ओ-साल का धोया जाए