गिरने दो तुम मुझे मिरा साग़र संभाल लो
इतना तो मेरे यार करो मैं नशे में हूँ
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बे-सबब बात बढ़ाने की ज़रूरत क्या है
ग़म का ख़ज़ाना तेरा भी है मेरा भी
वो भी धरती पे उतारी हुई मख़्लूक़ ही है
अंदर का सुकूत कह रहा है
रेत की लहरों से दरिया की रवानी माँगे
मय-ख़ाने की बात न कर वाइज़ मुझ से
क्या फ़र्ज़ है ये जिस्म के ज़िंदाँ में सज़ा दे
पुकारती है जो तुझ को तिरी सदा ही न हो
काँटों को पिला के ख़ून अपना
पाया नहीं वो जो खो रहा हूँ
इस सोच में ज़िंदगी बिता दी