दवाओं की अलमारियों से सजी इक दुकाँ में
मरीज़ों के अम्बोह में मुज़्महिल सा
इक इंसाँ खड़ा है
जो इक नीली कुबड़ी सी शीशी के सीने पे लिक्खे हुए
एक इक हर्फ़ को ग़ौर से पढ़ रहा है
मगर उस पे तो ''ज़हर'' लिख्खा हुआ है
उस इंसान को क्या मरज़ है
ये कैसी दवा है?
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अक्स-ए-याद-ए-यार को धुँदला किया है
अब के बरस
चल चल के थक गया है कि मंज़िल नहीं कोई
एक लम्हे से दूसरे लम्हे तक
आसमाँ कुछ भी नहीं अब तेरे करने के लिए
वो कौन था
बिछड़े लोगों से मुलाक़ात कभी फिर होगी
चुपके से इधर आ जाओ
हम ने तो कोई बात निकाली नहीं ग़म की
या तेरे अलावा भी किसी शय की तलब है
सैगंधी
बे-नाम से इक ख़ौफ़ से दिल क्यूँ है परेशाँ