जाने न पाए उस को जहाँ हो तहाँ से लाओ
घर में न हो तो कूचा ओ बाज़ार देखना
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जिस ने आदम के तईं जाँ बख़्शा
शैख़ उस की चश्म के गोशे से गोशे हो कहीं
जुनूँ है फ़ौज फ़ौज और इस तरफ़ 'हातिम' अकेला है
केसर में इस तरह से आलूदा है सरापा
कई दीवान कह चुका 'हातिम'
इश्क़ के शहर की कुछ आब-ओ-हवा और ही है
ख़ाक कर देवे जला कर पहले फिर टिसवे बहाए
मज़हर-ए-हक़ कब नज़र आता है इन शैख़ों के तईं
रात मेरे फ़ुग़ाँ-ओ-नाले से
किया था दिन का वादा रात को आया तो क्या शिकवा
मुद्दत से ख़्वाब में भी नहीं नींद का ख़याल
मेरे आँसू के पोछने को मियाँ