किया था दिन का वादा रात को आया तो क्या शिकवा
उसे भूला नहीं कहते जो भूला घर में शाम आया
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तौबा ज़ाहिद की तौबा तल्ली है
है कभू दिल में कभू जी में कभू आँखों के बीच
न बुलबुल में न परवाने में देखा
मज़हर-ए-हक़ कब नज़र आता है इन शैख़ों के तईं
केसर में इस तरह से आलूदा है सरापा
अहल-ए-म'अनी जुज़ न बूझेगा कोई इस रम्ज़ को
देखते सज्दे में आता है जो करता है निगाह
जिस कूँ पी का ख़याल होता है
पगड़ी अपनी यहाँ सँभाल चलो
अनल-हक़ की हक़ीक़त को जो हो मंसूर सो जाने
निगाहें जोड़ और आँखें चुरा टुक चल के फिर देखा
इस वास्ते निकलूँ हूँ तिरे कूचे से बच बच