केसर में इस तरह से आलूदा है सरापा
सुनते थे हम सो देखा तो शाख़-ए-ज़ाफ़राँ है
Ahmad Faraz
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Gulzar
Habib Jalib
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होली के अब बहाने छिड़का है रंग किस ने
मैं पीर हो गया हूँ और अब तक जवाँ है दर्द
कभू पहुँची न उस के दिल तलक रह ही में थक बैठी
रहन-ए-शराब-ख़ाना किया शैख़ हैफ़ है
सनम के देख कर लब और दहन सुर्ख़
जुम्बिश-ए-दिल नहीं बेजा तू किधर भूला है
तिरा दिल यार अगर माइल करे है
जब हुए 'हातिम' हम उस से आश्ना
होली
इस क़दर बस-कि रोज़ मिलने से
वस्फ़ अँखियों का लिखा हम ने गुल-ए-बादाम पर
इस ज़माने में न हो क्यूँकर हमारा दिल उदास