वो हम से दूर होते जा रहे हैं
बहुत मग़रूर होते जा रहे हैं
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इस दर्जा बद-गुमाँ हैं ख़ुलूस-ए-बशर से हम
लम्हे उदास उदास फ़ज़ाएँ घुटी घुटी
ज़िंदगी आ तुझे क़ातिल के हवाले कर दूँ
तर्क-ए-मय ही समझ इसे नासेह
रक़्क़ासा-ए-हयात से
तिरे बग़ैर अजब बज़्म-ए-दिल का आलम है
काँटों से गुज़र जाता हूँ दामन को बचा कर
कहाँ है आ जा
कब तक 'शकील' दिल को दुआ कीजिएगा आप
शिकवे तिरे हुज़ूर किए जा रहा हूँ मैं
शब की बहार सुब्ह की नुदरत न पूछिए
अब तो ख़ुशी का ग़म है न ग़म की ख़ुशी मुझे