दिल में मिरे जिगर में मिरे आँख में मिरी
हर जा है दोस्त और नहीं मिलती है जा-ए-दोस्त
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जी में आता है कि फूलों की उड़ा दूँ ख़ुशबू
पारसा बन के सू-ए-मय-ख़ाना
हज़रत-ए-नासेह भी मय पीने लगे
अब तो मय-ख़ानों से भी कुछ बढ़ कर
एक को एक नहीं रश्क से मरने देता
आलम-ए-इश्क़ में अल्लाह-रे नज़र की वुसअत
ज़र्फ़ तो देखिए मेरे दिल-ए-शैदाई का
उश्शाक़ के आगे न लड़ा ग़ैरों से आँखें
उस ने माँगा जो दिल दिए ही बनी
हैरत में हूँ इलाही क्यूँ-कर ये ख़त्म होगा
इंतिहा-ए-मअरिफ़त से ऐ 'शरफ़'