हज़रत-ए-नासेह भी मय पीने लगे
अब मुझे समझाने वाला कौन था
Parveen Shakir
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इस पर्दे में ये हुस्न का आलम है इलाही
दुख़्त-ए-रज़ ज़ाहिद से बोली मुझ से घबराते हो क्यूँ
जिस को चाहा तू ने उस को मिल गया
क़दमों पे गिरा तो हट के बोले
ज़र्फ़ तो देखिए मेरे दिल-ए-शैदाई का
उश्शाक़ के आगे न लड़ा ग़ैरों से आँखें
कम-सिनी जिन की हमें याद है और कल की ही बात
एक को एक नहीं रश्क से मरने देता
तसव्वुर ने तिरे आबाद जब से घर किया मेरा
अब तो मय-ख़ानों से भी कुछ बढ़ कर
आलम-ए-इश्क़ में अल्लाह-रे नज़र की वुसअत