इंतिहा-ए-मअरिफ़त से ऐ 'शरफ़'
मैं ने जो देखा जो समझा कुछ न था
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आलम-ए-इश्क़ में अल्लाह-रे नज़र की वुसअत
अल्लाह अल्लाह ख़ुसूसिय्यत-ए-ज़ात-ए-हसनैन
उस ने माँगा जो दिल दिए ही बनी
अब तो मय-ख़ानों से भी कुछ बढ़ कर
तसव्वुर ने तिरे आबाद जब से घर किया मेरा
क़दमों पे गिरा तो हट के बोले
पामालियों का ज़ीना है अर्श से भी ऊँचा
शैख़ कुछ अपने-आप को समझें
तेरी आँखें जिसे चाहें उसे अपना कर लें
कम-सिनी जिन की हमें याद है और कल की ही बात
जी में आता है कि फूलों की उड़ा दूँ ख़ुशबू