आलम-ए-इश्क़ में अल्लाह-रे नज़र की वुसअत
नुक़्ता-ए-वहम हुआ गुम्बद-ए-गर्दूं मुझ को
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उस ने माँगा जो दिल दिए ही बनी
अल्लाह अल्लाह ख़ुसूसिय्यत-ए-ज़ात-ए-हसनैन
इस पर्दे में ये हुस्न का आलम है इलाही
तसव्वुर ने तिरे आबाद जब से घर किया मेरा
उश्शाक़ के आगे न लड़ा ग़ैरों से आँखें
जिस को चाहा तू ने उस को मिल गया
कम-सिनी जिन की हमें याद है और कल की ही बात
क़दमों पे गिरा तो हट के बोले
दुख़्त-ए-रज़ ज़ाहिद से बोली मुझ से घबराते हो क्यूँ
शैख़ कुछ अपने-आप को समझें
हैरत में हूँ इलाही क्यूँ-कर ये ख़त्म होगा
जी में आता है कि फूलों की उड़ा दूँ ख़ुशबू