इस पर्दे में ये हुस्न का आलम है इलाही
बे-पर्दा वो हो जाएँ तो क्या जानिए क्या हो
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उश्शाक़ के आगे न लड़ा ग़ैरों से आँखें
उस ने माँगा जो दिल दिए ही बनी
हज़रत-ए-नासेह भी मय पीने लगे
हैरत में हूँ इलाही क्यूँ-कर ये ख़त्म होगा
दुख़्त-ए-रज़ और तू कहाँ मिलती
शैख़ कुछ अपने-आप को समझें
जिस को चाहा तू ने उस को मिल गया
आलम-ए-इश्क़ में अल्लाह-रे नज़र की वुसअत
पामालियों का ज़ीना है अर्श से भी ऊँचा
कम-सिनी जिन की हमें याद है और कल की ही बात
जी में आता है कि फूलों की उड़ा दूँ ख़ुशबू