तसव्वुर ने तिरे आबाद जब से घर किया मेरा
निकलता ही नहीं दिन रात अपने घर में रहता है
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दिल में मिरे जिगर में मिरे आँख में मिरी
इस पर्दे में ये हुस्न का आलम है इलाही
तेरी आँखें जिसे चाहें उसे अपना कर लें
इंतिहा-ए-मअरिफ़त से ऐ 'शरफ़'
उश्शाक़ के आगे न लड़ा ग़ैरों से आँखें
दुख़्त-ए-रज़ और तू कहाँ मिलती
उस ने माँगा जो दिल दिए ही बनी
ज़र्फ़ तो देखिए मेरे दिल-ए-शैदाई का
तमाम चारागरों से तो मिल चुका है जवाब
दुख़्त-ए-रज़ ज़ाहिद से बोली मुझ से घबराते हो क्यूँ
हज़रत-ए-नासेह भी मय पीने लगे