तमाम चारागरों से तो मिल चुका है जवाब
तुम्हें भी दर्द-ए-मोहब्बत सुनाए देते हैं
Faiz Ahmad Faiz
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एक को एक नहीं रश्क से मरने देता
उस ने माँगा जो दिल दिए ही बनी
क़दमों पे गिरा तो हट के बोले
ज़र्फ़ तो देखिए मेरे दिल-ए-शैदाई का
आलम-ए-इश्क़ में अल्लाह-रे नज़र की वुसअत
दुख़्त-ए-रज़ और तू कहाँ मिलती
तेरी आँखें जिसे चाहें उसे अपना कर लें
जी में आता है कि फूलों की उड़ा दूँ ख़ुशबू
इंतिहा-ए-मअरिफ़त से ऐ 'शरफ़'
हैरत में हूँ इलाही क्यूँ-कर ये ख़त्म होगा
शैख़ कुछ अपने-आप को समझें
कम-सिनी जिन की हमें याद है और कल की ही बात