पारसा बन के सू-ए-मय-ख़ाना
सर झुकाए हुए हम जाते हैं
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हैरत में हूँ इलाही क्यूँ-कर ये ख़त्म होगा
तेरी आँखें जिसे चाहें उसे अपना कर लें
दिल में मिरे जिगर में मिरे आँख में मिरी
दुख़्त-ए-रज़ और तू कहाँ मिलती
क़दमों पे गिरा तो हट के बोले
ज़र्फ़ तो देखिए मेरे दिल-ए-शैदाई का
आलम-ए-इश्क़ में अल्लाह-रे नज़र की वुसअत
इस पर्दे में ये हुस्न का आलम है इलाही
उस ने माँगा जो दिल दिए ही बनी
दुख़्त-ए-रज़ ज़ाहिद से बोली मुझ से घबराते हो क्यूँ
अल्लाह अल्लाह ख़ुसूसिय्यत-ए-ज़ात-ए-हसनैन
हज़रत-ए-नासेह भी मय पीने लगे