निगाह को भी मयस्सर है दिल की गहराई
ये तर्जुमान-ए-मोहब्बत है बे-ज़बाँ न कहो
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तुम ही अब वो नहीं रहे वर्ना
हौसले की कमी से डरता हूँ
मायूसी
अंजाम-ए-विसाल
उस की हँसी तुम क्या समझो
ग़म की अँधेरी राहों में तो तुम भी नहीं काम आओ हो
वो आँखें जो अब अजनबी हो गई हैं
देता रहा फ़रेब-ए-मुसलसल कोई मगर
दिल पर असर-ए-ख़्वाब है हल्का हल्का
आईने को ख़ुद तोड़ रहा हो जैसे
रात इक नादार का घर जल गया था और बस
हाए उस मिन्नत-कश-ए-वहम-ओ-गुमाँ की जुस्तुजू