वो आँखें जो अब अजनबी हो गई हैं
बहुत दूर तक उन में पाया गया हूँ
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मौज-ए-तूफ़ाँ से निकल कर भी सलामत न रहे
फिर कोई जश्न मनाओ कि हँसी आ जाए
अपने पराए थक गए कह कर हर कोशिश बेकार रही
हदूद-ए-जिस्म से आगे बढ़े तो ये देखा
हम-सफ़र
कुछ तो फ़ितरत से मिली दानाई
ग़म की अँधेरी राहों में तो तुम भी नहीं काम आओ हो
उस के नाम
क़रीब से उसे देखो तो वो भी तन्हा है
अधूरा हो के हूँ कितना मुकम्मल
ऐ इंक़लाब-ए-नौ तिरी रफ़्तार देख कर
रात इक नादार का घर जल गया था और बस