रात इक नादार का घर जल गया था और बस
लोग तो बे-वज्ह सन्नाटे से घबराने लगे
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ख़ुद वो करते हैं जिसे अहद-ए-वफ़ा से ताबीर
हदूद-ए-जिस्म से आगे बढ़े तो ये देखा
जी में आता है कि 'शौकत' किसी चिंगारी को
इस फ़ैसले पे लुट गई दुनिया-ए-ए'तिबार
उस की हँसी तुम क्या समझो
अहद-ए-आग़ाज़-ए-तमन्ना भी मुझे याद नहीं
आईने को ख़ुद तोड़ रहा हो जैसे
हर बुरे वक़्त में काम आया था
ए'तिबार
उन की निगाह-ए-नाज़ की गर्दिश के साथ साथ
दिल पर असर-ए-ख़्वाब है हल्का हल्का
मायूसी