शरीक-ए-दर्द नहीं जब कोई तो ऐ 'शौकत'
ख़ुद अपनी ज़ात की बेचारगी ग़नीमत है
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यास
देता रहा फ़रेब-ए-मुसलसल कोई मगर
हवाएँ रोक न पाईं भँवर डुबो न सके
आरज़ू
इस फ़ैसले पे लुट गई दुनिया-ए-ए'तिबार
जी में आता है कि 'शौकत' किसी चिंगारी को
हँसते हँसते बहे हैं आँसू भी
मौज-ए-तूफ़ाँ से निकल कर भी सलामत न रहे
हम-सफ़र
नज़र-नवाज़ नज़ारों की याद आती है
उस के नाम