हँसते हँसते बहे हैं आँसू भी
रोते रोते हँसती भी आई हमें
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ज़िंदगी का सफ़र ख़त्म होता रहा तुम मुझे दम-ब-दम याद आते रहे
हर बुरे वक़्त में काम आया था
किसी की बाज़ी कैसी घात
जब मस्लहत-ए-वक़्त से गर्दन को झुका कर
कुछ तो फ़ितरत से मिली दानाई
अंजाम-ए-विसाल
रात तारों से जब सँवरती है
रात इक नादार का घर जल गया था और बस
उस की हँसी तुम क्या समझो
ख़ुद वो करते हैं जिसे अहद-ए-वफ़ा से ताबीर
देता रहा फ़रेब-ए-मुसलसल कोई मगर
मौज-ए-तूफ़ाँ से निकल कर भी सलामत न रहे