जब मस्लहत-ए-वक़्त से गर्दन को झुका कर
वो बात करे है तो कोई तीर लगे है
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ए'तिबार
देता रहा फ़रेब-ए-मुसलसल कोई मगर
जुरअत हो तो दुनिया से बग़ावत कर लो
कुछ तो फ़ितरत से मिली दानाई
हर बुरे वक़्त में काम आया था
अहद-ए-आग़ाज़-ए-तमन्ना भी मुझे याद नहीं
इस फ़ैसले पे लुट गई दुनिया-ए-ए'तिबार
शरीक-ए-दर्द नहीं जब कोई तो ऐ 'शौकत'
बर्क़ की शो'ला-मिज़ाजी है मुसल्लम लेकिन
ये कैसी बे-क़रारी सुनने वालों के दिलों में है
हवाएँ रोक न पाईं भँवर डुबो न सके
ज़िंदगी से कोई मानूस तो हो ले पहले