बर्क़ की शो'ला-मिज़ाजी है मुसल्लम लेकिन
मैं ने देखा मिरे साए से ये कतराती है
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शरीक-ए-दर्द नहीं जब कोई तो ऐ 'शौकत'
हँसते हँसते बहे हैं आँसू भी
हौसले की कमी से डरता हूँ
देता रहा फ़रेब-ए-मुसलसल कोई मगर
आईने को ख़ुद तोड़ रहा हो जैसे
फिर कोई जश्न मनाओ कि हँसी आ जाए
'शौकत' वो आज आप को पहचान तो गए
फूँक कर सारा चमन जब वो शरीक-ए-ग़म हुए
हसरतें बन कर निगाहों से बरस जाएँगे हम
रात इक नादार का घर जल गया था और बस
जब मस्लहत-ए-वक़्त से गर्दन को झुका कर
कुछ तो फ़ितरत से मिली दानाई