फूँक कर सारा चमन जब वो शरीक-ए-ग़म हुए
उन को इस आलम में भी ग़म-आश्ना कहना पड़ा
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कुछ तो फ़ितरत से मिली दानाई
हँसते हँसते बहे हैं आँसू भी
आईने को ख़ुद तोड़ रहा हो जैसे
औरत
ये कैसी बे-क़रारी सुनने वालों के दिलों में है
अपने पराए थक गए कह कर हर कोशिश बेकार रही
क्या बढ़ेगा वो तसव्वुर की हदों से आगे
शुऊ'र-ए-कैफ़-ओ-ख़ुशी है ज़रा ठहर जाओ
हुस्न-ए-इख़्लास ही नहीं वर्ना
याद
हाए उस मिन्नत-कश-ए-वहम-ओ-गुमाँ की जुस्तुजू
एक वहशत है रहगुज़ारों में