जुरअत हो तो दुनिया से बग़ावत कर लो
एहसास को बेगाना-ए-नफ़रत कर लो
क्यूँ हिर्स के मरघट पे सिसकते हो भला
इंसान हो अपने से मोहब्बत कर लो
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निगाह को भी मयस्सर है दिल की गहराई
देता रहा फ़रेब-ए-मुसलसल कोई मगर
हम-सफ़र
क्या बढ़ेगा वो तसव्वुर की हदों से आगे
उन की निगाह-ए-नाज़ की गर्दिश के साथ साथ
ऐ इंक़लाब-ए-नौ तिरी रफ़्तार देख कर
हुस्न-ए-इख़्लास ही नहीं वर्ना
किसी की बाज़ी कैसी घात
मुझ को जहाँ में कोई दिल-आरा नहीं मिला
नज़र-नवाज़ नज़ारों की याद आती है
जी में आता है कि 'शौकत' किसी चिंगारी को
अपने पराए थक गए कह कर हर कोशिश बेकार रही