ज़ौक़ कविता, ग़ज़ल तथा कविताओं का ज़ौक़ (page 4)

ज़ौक़ कविता, ग़ज़ल तथा कविताओं का ज़ौक़ (page 4)
नामज़ौक़
अंग्रेज़ी नामSheikh Ibrahim Zauq
जन्म की तारीख1790
मौत की तिथि1854
जन्म स्थानDelhi

मज़ा था हम को जो लैला से दू-ब-दू करते

मरज़-ए-इश्क़ जिसे हो उसे क्या याद रहे

मार कर तीर जो वो दिलबर-ए-जानी माँगे

महफ़िल में शोर-ए-क़ुलक़ुल-ए-मीना-ए-मुल हुआ

लेते ही दिल जो आशिक़-ए-दिल-सोज़ का चले

लाई हयात आए क़ज़ा ले चली चले

क्या ग़रज़ लाख ख़ुदाई में हों दौलत वाले

क्या आए तुम जो आए घड़ी दो घड़ी के बाद

कोई कमर को तिरी कुछ जो हो कमर तो कहे

कोई इन तंग-दहानों से मोहब्बत न करे

किसी बेकस को ऐ बेदाद गर मारा तो क्या मारा

ख़ूब रोका शिकायतों से मुझे

ख़त बढ़ा काकुल बढ़े ज़ुल्फ़ें बढ़ीं गेसू बढ़े

कौन वक़्त ऐ वाए गुज़रा जी को घबराते हुए

कल गए थे तुम जिसे बीमार-ए-हिज्राँ छोड़ कर

कहाँ तलक कहूँ साक़ी कि ला शराब तो दे

कब हक़-परस्त ज़ाहिद-ए-जन्नत-परस्त है

जुदा हों यार से हम और न हो रक़ीब जुदा

जो कुछ कि है दुनिया में वो इंसाँ के लिए है

जब चला वो मुझ को बिस्मिल ख़ूँ में ग़लताँ छोड़ कर

हम हैं और शुग़्ल-ए-इश्क़-बाज़ी है

हुए क्यूँ उस पे आशिक़ हम अभी से

हाथ सीने पे मिरे रख के किधर देखते हो

हंगामा गर्म हस्ती-ए-ना-पाएदार का

हैं दहन ग़ुंचों के वा क्या जाने क्या कहने को हैं

गुहर को जौहरी सर्राफ़ ज़र को देखते हैं

गईं यारों से वो अगली मुलाक़ातों की सब रस्में

इक सदमा दर्द-ए-दिल से मिरी जान पर तो है

दूद-ए-दिल से है ये तारीकी मिरे ग़म-ख़ाना में

दिल बचे क्यूँकर बुतों की चश्म-ए-शोख़-ओ-शंग से

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