ज़ौक़ कविता, ग़ज़ल तथा कविताओं का ज़ौक़ (page 3)

ज़ौक़ कविता, ग़ज़ल तथा कविताओं का ज़ौक़ (page 3)
नामज़ौक़
अंग्रेज़ी नामSheikh Ibrahim Zauq
जन्म की तारीख1790
मौत की तिथि1854
जन्म स्थानDelhi

बोसा जो रुख़ का देते नहीं लब का दीजिए

बे-क़रारी का सबब हर काम की उम्मीद है

बेहतर तो है यही कि न दुनिया से दिल लगे

बाक़ी है दिल में शैख़ के हसरत गुनाह की

बजा कहे जिसे आलम उसे बजा समझो

बैठे भरे हुए हैं ख़ुम-ए-मय की तरह हम

बा'द रंजिश के गले मिलते हुए रुकता है दिल

अज़ीज़ो इस को न घड़ियाल की सदा समझो

ऐ 'ज़ौक़' वक़्त नाले के रख ले जिगर पे हाथ

ऐ 'ज़ौक़' तकल्लुफ़ में है तकलीफ़ सरासर

ऐ 'ज़ौक़' देख दुख़्तर-ए-रज़ को न मुँह लगा

ऐ शम्अ तेरी उम्र-ए-तबीई है एक रात

अब तो घबरा के ये कहते हैं कि मर जाएँगे

ज़ख़्मी हूँ तिरे नावक-ए-दुज़-दीदा-नज़र से

ये इक़ामत हमें पैग़ाम-ए-सफ़र देती है

वो कौन है जो मुझ पे तअस्सुफ़ नहीं करता

वक़्त-ए-पीरी शबाब की बातें

उस संग-ए-आस्ताँ पे जबीन-ए-नियाज़ है

तेरे आफ़त-ज़दा जिन दश्तों में अड़ जाते हैं

सब को दुनिया की हवस ख़्वार लिए फिरती है

रिंद-ए-ख़राब-हाल को ज़ाहिद न छेड़ तू

क़ुफ़्ल-ए-सद-ख़ाना-ए-दिल आया जो तू टूट गए

क़स्द जब तेरी ज़ियारत का कभू करते हैं

नीमचा यार ने जिस वक़्त बग़ल में मारा

निगह का वार था दिल पर फड़कने जान लगी

नाला इस शोर से क्यूँ मेरा दुहाई देता

नहीं सबात बुलंदी-ए-इज्ज़-ओ-शाँ के लिए

न खींचो आशिक़-तिश्ना-जिगर के तीर पहलू से

न करता ज़ब्त मैं नाला तो फिर ऐसा धुआँ होता

मिरे सीने से तेरा तीर जब ऐ जंग-जू निकला

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