हिज्र में यूँ बहते हैं आँसू
जैसे रिम-झिम बरसे सावन
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जब तिरा आसरा नहीं मिलता
वो निकले हैं सरापा बन-सँवर कर
न रहबर ने न उस की रहबरी ने
कोई हम से ख़फ़ा सा लगता है
इक दाइमी सुकूँ की तमन्ना है रात दिन
चाहे दीवाना कहें या लोग सौदाई कहें
ख़ून-ए-दिल होता रहा ख़ून-ए-जिगर होता रहा
हुआ जब जल्वा-आरा आप का ज़ौक़-ए-ख़ुद-आराई
सुकूँ-अफ़ज़ा बहुत है दर्द-ए-उल्फ़त
इक दामन में फूल भरे हैं इक दामन में आग ही आग
शाम-ए-ग़म की सहर न हो जाए