ऐसा कुछ गर्दिश-ए-दौराँ ने रखा है मसरूफ़
माजरे हो न सके हम से क़लम-बंद अपने
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दिल की बस्ती पे किसी दर्द का साया भी नहीं
हूँ किस मक़ाम पे दिल में तिरे ख़बर न लगे
उस के जाने पे ये एहसास हुआ है 'शाहिद'
निकल आए जो हम घर से तो सौ रस्ते निकल आए
शहर सहरा है घर बयाबाँ है
फ़ुग़ान-ए-रूह कोई किस तरह सुनाए उसे
मुझ से कहती हैं वो उदास आँखें
कार-ए-मुश्किल ही किया दुनिया में गर मैं ने किया
ये रोज़ ओ शब का तसलसुल रवाँ-दवाँ ही रहा
बजा है ख़्वाब-नवर्दी प ख़्वाब ऐसे हों
आग को फूल कहे जाएँ ख़िर्द-मंद अपने