बजा है ख़्वाब-नवर्दी प ख़्वाब ऐसे हों
खुले जो आँख तो अपना ही घर खंडर न लगे
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दिल की बस्ती पे किसी दर्द का साया भी नहीं
फ़ुग़ान-ए-रूह कोई किस तरह सुनाए उसे
ऐसा कुछ गर्दिश-ए-दौराँ ने रखा है मसरूफ़
चलते चलते चले आए हैं परेशानी में
ये रोज़ ओ शब का तसलसुल रवाँ-दवाँ ही रहा
शहर सहरा है घर बयाबाँ है
हूँ किस मक़ाम पे दिल में तिरे ख़बर न लगे
कुछ ऐसे दौर भी ताहम गिरफ़्त में आए
आग को फूल कहे जाएँ ख़िर्द-मंद अपने
फ़िराक़ ओ वस्ल से हट कर कोई रिश्ता हमारा हो
कुछ ऐसी टूट के शहर-ए-जुनूँ की याद आई