ग़ैर तरफ़ क्यूँकि नज़र कर सकूँ
ख़ौफ़ है तुझ इश्क़ के जासूस का
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तिरी ज़ुल्फ़ ज़ुन्नार का तार है
ग़म की जब सोज़िश सीं महरम होवेगा
जब सें तुझ इश्क़ की गरमी का असर है मन में
हुआ हूँ इन दिनों माइल किसी का
मेरे जिगर के दर्द का चारा कब आएगा
अबस इन शहरियों में वक़्त अपना हम किए ज़ाए
था बहाना मुझे ज़ंजीर के हिल जाने का
है जुम्बिश-ए-मिज़्गाँ में तिरी तीर की आवाज़
हमारी बात मोहब्बत सीं तुम जो गोश करो
हर किसी कूँ गुज़र-ए-इश्क़ में आनाँ मुश्किल
पी कर शराब-ए-शौक़ कूँ बेहोश हो बेहोश हो
मुश्ताक़ हूँ तुझ लब की फ़साहत का व-लेकिन