अफ़्साना-ए-ग़म है शादमानी मेरी
मैं कौन हूँ और क्या जवानी मेरी
हँसता हूँ कि मुक़तज़ा-ए-हस्ती है ये
रोता हूँ कि ज़िंदगी है फ़ानी मेरी
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एक शोला सा उठा था दिल में
आँखें खुली थीं सब की कोई देखता न था
बादल
न जाने कट गया किस बे-ख़ुदी के आलम में
इलाज-ए-दर्द-ए-दिल-ए-सोगवार हो न सका
सायों से लिपट रहे थे साए
सौ बार चमन महका सौ बार बहार आई
कितनी हंगामा-ख़ू तमन्नाएँ
रात दिन
शादाँ हूँ कि ग़मनाक पिए जाता हूँ
कौन किस का ग़म खाए कौन किस को बहलाए
ज़िंदगी क्या है इक सफ़र के सिवा