उस बुत का कूचा मस्जिद-ए-जामे नहीं है शैख़
उठिए और अपना याँ से मुसल्ला उठाइए
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जब तिरा नाम सुना तो नज़र आया गोया
कलाम-ए-सख़्त कह कह कर वो क्या हम पर बरसते हैं
वही माबूद है 'नाज़िम' जो है महबूब अपना
वो जब आप से अपना पर्दा करें
गर अक़्ल-ओ-शुऊर की रसाई होती
है जल्वा-फ़रोशी की दुकाँ जो ये अब इसी ने
गर कहे हुलूल है वो इक अमर क़बीह
मोहताज नहीं क़ाफ़िला आवाज़-ए-दरा का
क्या बात है कारसाज़ तेरी मैं कौन
हम ने सौ सौ तरह बनाई बात
बे-दिए ले उड़ा कबूतर ख़त
ये किस ज़ोहरा-जबीं की अंजुमन में आमद आमद है