क्या बात है कारसाज़ तेरी मैं कौन
क्या शान है बे-नियाज़ तेरी मैं कौन
रक्खूँ क्या हौसला पढ़ूँ क्या मक़्दूर
रोज़ा तेरा नमाज़ तेरी मैं कौन
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आशिक़ जो हुआ है तू किसी पर नागाह
शाएर बने नदीम बने क़िस्सा-ख़्वाँ बने
मुहताज नहीं क़ाफ़िला आवाज़-ए-दरा का
बंद महरम के वो खुलवातें हैं हम से बेशतर
'नाज़िम' ये इंतिज़ाम रिआ'यत है नाम की
रोने ने मिरे सैकड़ों घर ढा दिये लेकिन
आ जाए अगर हुक्म फ़लक से 'नाज़िम'
अफ़्साना-ए-मजनूँ से नहीं कम मिरा क़िस्सा
हर चंद लुत्फ़-ओ-मेहरबानी पेश आए
सूरत वो पहली कि हो मगर माह-ए-तमाम
बर-सर-ए-लुत्फ़ आज चश्म-ए-दिल-रुबा थी मैं न था
गो कुछ भी वो मुँह से नहीं फ़रमाते हैं