जानाँ को सर-ए-मेहर-ओ-वफ़ा है झूट सब
कुछ उस ने कहा है या लिखा है झूट सब
वो कब लिखता है और कब कहता है
क़ासिद कहता है यूँ कहा है झूट सब
Faiz Ahmad Faiz
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जब तिरा नाम सुना तो नज़र आया गोया
साहिल पर आ के लगती है टक्कर सफ़ीने को
कहते हो सब कि तुझ से ख़फ़ा हो गया है यार
जाती नहीं है सई रह-ए-आशिक़ी में पेश
अफ़्साना-ए-मजनूँ से नहीं कम मिरा क़िस्सा
कलाम-ए-सख़्त कह कह कर वो क्या हम पर बरसते हैं
ईद है हम ने भी जाना कि न होती गर ईद
कुफ़्र-ओ-ईमाँ से है क्या बहस इक तमन्ना चाहिए
कम समझते नहीं हम ख़ुल्द से मयख़ाने को
रोने की ये शिद्दत है कि घबरा गईं आँखें
सँभाल वाइ'ज़ ज़बान अपनी ख़ुदा से डरा इक ज़रा हया कर
उलझे जो रक़ीब से वो कल पी के शराब