सँभाल वाइ'ज़ ज़बान अपनी ख़ुदा से डरा इक ज़रा हया कर
बुतों की ग़ीबत ख़ुदा के घर में ख़ुदा ख़ुदा कर ख़ुदा ख़ुदा कर
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मैं ने कहा कि दा'वा-ए-उलफ़त मगर ग़लत
है रिश्ता एक फिर ये कशाकश न चाहिए
तेरे दर से मैं उठा लेकिन न मेरा दिल उठा
जुम्बिश अबरू को है लेकिन नहीं आशिक़ पे निगाह
हम ने सौ सौ तरह बनाई बात
शबिस्ताँ में रहो बाग़ों में खेलो मुझ से क्यूँ पूछो
साहिल पर आ के लगती है टक्कर सफ़ीने को
घर की वीरानी को क्या रोऊँ कि ये पहले सी
उलझे जो रक़ीब से वो कल पी के शराब
हम उन की नज़र में समाने लगे
आशिक़ जो हुआ है तू किसी पर नागाह