शबिस्ताँ में रहो बाग़ों में खेलो मुझ से क्यूँ पूछो
कि रातें किस तरह कटती हैं दिन कैसे गुज़रते हैं
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जब गुज़रती है शब-ए-हिज्र मैं जी उठता हूँ
अफ़्साना-ए-मजनूँ से नहीं कम मिरा क़िस्सा
ये किस ज़ोहरा-जबीं की अंजुमन में आमद आमद है
मोहताज नहीं क़ाफ़िला आवाज़-ए-दरा का
आशिक़ जो हुआ है तू किसी पर नागाह
फैला के तसव्वुर के असर को मैं ने
हक़ ये है कि का'बे की बिना भी न पड़ी थी
बरसों ढूँडा किए हम दैर-ओ-हरम में लेकिन
ले के अपनी ज़ुल्फ़ को वो प्यारे प्यारे हाथ में
पुर्सिश को अगर होंट तुम्हारे नहीं हिलते
बाक़ी न रही हाथ में जब क़ुव्वत-ओ-ज़ोर
बंद महरम के वो खुलवातें हैं हम से बेशतर