बरसों ढूँडा किए हम दैर-ओ-हरम में लेकिन
कहीं पाया न पता उस बुत-ए-हरजाई का
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जाती नहीं है सई रह-ए-आशिक़ी में पेश
'नाज़िम' ये इंतिज़ाम रिआ'यत है नाम की
मोहताज नहीं क़ाफ़िला आवाज़-ए-दरा का
कहते हैं छुप के रात को पीता है रोज़ मय
चले हो दश्त को 'नाज़िम' अगर मिले मजनूँ
उलझे जो रक़ीब से वो कल पी के शराब
बोसा-ए-आरिज़ मुझे देते हुए डरता है क्यूँ
इस तवक़्क़ो' पे कि देखूँ कभी आते जाते
कभी ख़ूँ होती हुए और कभी जलते देखा
है ईद मय-कदे को चलो देखता है कौन
आ गया ध्यान में मज़मूँ तिरी यकताई का
क्या मेरे काम से है रवाई को दुश्मनी