कहते हैं छुप के रात को पीता है रोज़ मय
वाइ'ज़ से राह कीजिए पैदा किसी तरह
Anwar Masood
Javed Akhtar
Habib Jalib
Faiz Ahmad Faiz
Rahat Indori
Allama Iqbal
Parveen Shakir
Jaun Eliya
Wasi Shah
Gulzar
Mir Taqi Mir
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नागाह मुझे दिखा के ताब-ए-रुख़्सार
शबिस्ताँ में रहो बाग़ों में खेलो मुझ से क्यूँ पूछो
थी आसमाँ पे मेरी चढ़ाई तमाम रात
गर कहे हुलूल है वो इक अमर क़बीह
उलझे जो रक़ीब से वो कल पी के शराब
क़ाज़ी के मुँह पे मारी है बोतल शराब की
कम समझते नहीं हम ख़ुल्द से मयख़ाने को
घर की वीरानी को क्या रोऊँ कि ये पहले सी
ये बंदा-ए-ख़ाकसार या'नी 'नाज़िम'
ख़रीदारी है शहद ओ शीर ओ क़स्र ओ हूर ओ ग़िल्माँ की
हक़ ये है कि का'बे की बिना भी न पड़ी थी
हम को हवस-ए-जल्वा-गाह-ए-तूर नहीं है