जुम्बिश अबरू को है लेकिन नहीं आशिक़ पे निगाह
तुम कमाँ क्यूँ लिए फिरते हो अगर तीर नहीं
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है जल्वा-फ़रोशी की दुकाँ जो ये अब इसी ने
मैं ने कहा कि दा'वा-ए-उलफ़त मगर ग़लत
कहाँ है तू कहाँ है और मैं हूँ
वही माबूद है 'नाज़िम' जो है महबूब अपना
आ गया ध्यान में मज़मूँ तिरी यकताई का
एक है जब मरजा-ए-इस्लाम-ओ-कुफ़्र
है रिश्ता एक फिर ये कशाकश न चाहिए
कहते हो सब कि तुझ से ख़फ़ा हो गया है यार
तेरे दर से मैं उठा लेकिन न मेरा दिल उठा
ये बंदा-ए-ख़ाकसार या'नी 'नाज़िम'
मोहताज नहीं क़ाफ़िला आवाज़-ए-दरा का
सँभाल वाइ'ज़ ज़बान अपनी ख़ुदा से डरा इक ज़रा हया कर