आ गया ध्यान में मज़मूँ तिरी यकताई का
आज मतला हुआ मिस्रा मिरी तन्हाई का
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हक़ ये है कि का'बे की बिना भी न पड़ी थी
क्या खाएँ हम वफ़ा में अब ईमान की क़सम
ख़रीदारी है शहद ओ शीर ओ क़स्र ओ हूर ओ ग़िल्माँ की
बंद महरम के वो खुलवातें हैं हम से बेशतर
आ जाए अगर हुक्म फ़लक से 'नाज़िम'
कम समझते नहीं हम ख़ुल्द से मयख़ाने को
साहिल पर आ के लगती है टक्कर सफ़ीने को
गो कुछ भी वो मुँह से नहीं फ़रमाते हैं
चले हो दश्त को 'नाज़िम' अगर मिले मजनूँ
दिल में उतरी है निगह रह गईं बाहर पलकें
उलझे जो रक़ीब से वो कल पी के शराब
रोने की ये शिद्दत है कि घबरा गईं आँखें