क्या खाएँ हम वफ़ा में अब ईमान की क़सम
जब तार-ए-सुब्हा रिश्ता-ए-ज़ुन्नार हो चुका
Habib Jalib
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रोने की ये शिद्दत है कि घबरा गईं आँखें
है जल्वा-फ़रोशी की दुकाँ जो ये अब इसी ने
क्या मेरे काम से है रवाई को दुश्मनी
तेरे दर से मैं उठा लेकिन न मेरा दिल उठा
साहिल पर आ के लगती है टक्कर सफ़ीने को
क्या बात है कारसाज़ तेरी मैं कौन
कहते हैं छुप के रात को पीता है रोज़ मय
गर अक़्ल-ओ-शुऊर की रसाई होती
ख़रीदारी है शहद ओ शीर ओ क़स्र ओ हूर ओ ग़िल्माँ की
दिल में उतरी है निगह रह गईं बाहर पलकें
हर चंद लुत्फ़-ओ-मेहरबानी पेश आए
शाएर बने नदीम बने क़िस्सा-ख़्वाँ बने