गर अक़्ल-ओ-शुऊर की रसाई होते
वाइ'ज़ की समझ में बात आई होती
कौसर पे सला-ए-जाम-ए-मय क्यूँ देते
मय पीने में कुछ अगर बुराई होती
Gulzar
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साहिल पर आ के लगती है टक्कर सफ़ीने को
आ जाए अगर हुक्म फ़लक से 'नाज़िम'
दिल में उतरी है निगह रह गईं बाहर पलकें
'नाज़िम' ये इंतिज़ाम रिआ'यत है नाम की
न बुज़ला-संज न शाएर न शोख़-तब्अ रक़ीब
अंदाज़-ओ-अदा से कुछ अगर पहचानूँ
जब गुज़रती है शब-ए-हिज्र मैं जी उठता हूँ
जब कहो क्यूँ हो ख़फ़ा क्या बाइ'स
बाक़ी न रही हाथ में जब क़ुव्वत-ओ-ज़ोर
फूँक दो याँ गर ख़स-ओ-ख़ाशाक हैं
है जल्वा-फ़रोशी की दुकाँ जो ये अब इसी ने
ख़रीदारी है शहद ओ शीर ओ क़स्र ओ हूर ओ ग़िल्माँ की