'नाज़िम' ये इंतिज़ाम रिआ'यत है नाम की
मैं मुब्तला नहीं हवस-ए-मुल्क-ओ-माल का
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है आईना-ख़ाने में तिरा ज़ौक़-फ़ज़ा रक़्स
रोज़ा रखता हूँ सुबूही पी के हंगाम-ए-सहर
आ जाए अगर हुक्म फ़लक से 'नाज़िम'
कहाँ है तू कहाँ है और मैं हूँ
अफ़्साना-ए-मजनूँ से नहीं कम मिरा क़िस्सा
जुम्बिश अबरू को है लेकिन नहीं आशिक़ पे निगाह
शबिस्ताँ में रहो बाग़ों में खेलो मुझ से क्यूँ पूछो
आशिक़ जो हुआ है तू किसी पर नागाह
ऐ नोश-ए-लब-ओ-माह-रुख़-ओ-ज़ोहरा-जबीं
हर चंद लुत्फ़-ओ-मेहरबानी पेश आए
'नाज़िम' उसे ख़त में कहते हो क्या लिखिए
घर की वीरानी को क्या रोऊँ कि ये पहले सी