'नाज़िम' उसे ख़त में कहते हो क्या लिखिए
हम क्या कहें हाल-ए-ज़ार अपना लिखिए
हो जाएगा ख़त बाल-ए-कबूतर पे गराँ
क्यूँ संग-दिली का शिकवा इतना लिखिए
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न बुज़ला-संज न शाएर न शोख़-तब्अ रक़ीब
अफ़्साना-ए-मजनूँ से नहीं कम मिरा क़िस्सा
उलझे जो रक़ीब से वो कल पी के शराब
अंदाज़-ओ-अदा से कुछ अगर पहचानूँ
रोने ने मिरे सैकड़ों घर ढा दिये लेकिन
थी आसमाँ पे मेरी चढ़ाई तमाम रात
शाएर बने नदीम बने क़िस्सा-ख़्वाँ बने
कहाँ है तू कहाँ है और मैं हूँ
पुर्सिश को अगर होंट तुम्हारे नहीं हिलते
ये बंदा-ए-ख़ाकसार या'नी 'नाज़िम'
एक है जब मरजा-ए-इस्लाम-ओ-कुफ़्र
बे-दिए ले उड़ा कबूतर ख़त